कला शिक्षण के विभिन्न उद्देश्य | Different Objectives of Art Teaching in Hindi

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(1) कला की शिक्षा जीवन के हर पहलू से जोड़कर प्रदान की जाए। (2) कला की शिक्षा से भविष्य में छात्र को आर्थिक लाभ भी मिल सके। (3) कला की शिक्षा से छात्र की सृजनात्मक, रचनात्मक, काल्पनिक, अभिव्यक्ति विकसित हो सके। (4) कला की शिक्षा के साथ-साथ मानव मूल्यों की शिक्षा भी दी जाए। (5) कला की शिक्षा से प्रयोगात्मक कार्य की प्रवृत्ति का विकास हो सके। (6) कला की शिक्षा से शारीरिक और मानसिक दोनों का ही विकास हो सके। (7) कला की शिक्षा द्वारा दूसरों को कैसे खुश कर सकें और उन्हें मनोरंजन दे सकें।

उपर्युक्त तथ्यों के निर्धारण करने में कला विशेषज्ञों ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह नहीं किया है, उन्हें चाहिए कि छात्र खेल-खेल में कला की शिक्षा प्राप्त करें तथा उन्हें कला की शिक्षा के अन्तर्गत ही सच बोलना, स्पष्ट करना, चलना, हँसना, किसी से बात करना, आगन्तुक से शिष्ट व्यवहार करना, वस्तुओं तथा प्रकृति को देखना, कपड़े पहनना, कृषि कार्य करना, शारीरिक विकास पर ध्यान देना, अपने को सुन्दर बनाना, मिट्टी से रूप सृजित करना, अपनी अध्ययन की सामग्री को सजाकर रखना, अपने अध्ययन के कक्ष को स्वच्छ तथा सुन्दर बनाना, बौद्धिक चिन्तन करना एवं अन्य उपयोगी शिल्पों के बारे में ज्ञान प्राप्त करना आता है। कला का अपरिमित क्षेत्र है वह विज्ञान तथा अन्य सभी विषयों से सम्बन्धित है। इसलिए काफी सोच-समझकर कला की पाठ्य सामग्री और उद्देश्य का निर्धारण करना चाहिए।

कला-शिक्षण के सामान्य उद्देश्य

कला की शिक्षा के सामान्य उद्देश्य निम्नलिखित होने चाहिएँ-

(1) कला की शिक्षा के लिए बाल-केन्द्रित प्रक्रिया विधि का उपयोग करना । (2) कला को शिक्षा का व्यावहारिक एवं सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त करना। (3) कला की शिक्षा की विधियों और तत्वों का ज्ञान प्राप्त करना। (4) सृजनात्मक, कलाओं के उपयोग में विभिन्न प्रकार को कला की सामग्री का ज्ञान प्राप्त कर प्रयोग करना। (5) छात्रों के स्वतन्त्र भाव-प्रकाशन, सौन्दर्य-बोध एवं सृजनशीलता के विकास के अनुकूल कलाकृति की रचना करना (6) कला की शिक्षा में निरीक्षण, अनुभूति, प्रेरणा, कल्पना, प्रयोग के महत्व को प्रतिपादित करना (7) कला के क्षेत्र में स्वतन्त्र अभिव्यक्ति करना । (8) कला के अन्तर्गत अन्य उप-विषयों का ज्ञान प्राप्त करना।

कला-शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य

छात्र में अनेक शक्तियाँ जन्मजात होती हैं, जो क्रिया करने की विभिन्न प्रवृत्तियों को जन्म देती हैं। उन्हीं पूर्ण शक्तियों को जानते हुए उन्हें विकसित करना एवं उचित मार्ग की ओर ले जाना ही शिक्षा है। ऐसा करने से छात्र के व्यवहार में अभूतपूर्व परिवर्तन होता है, यही शिक्षा का उद्देश्य है। कला जैसा उपयोगी विषय भी व्यवहार में परिवर्तन लाते हुए पूर्णता प्रदान करने की क्षमता रखता है। श्री राधाकमल मुखर्जी के अनुसार, “कला समाज के हाथों में ऐसा महत्वपूर्ण आकर्षक और शक्तिशाली उपकरण है, जिसके द्वारा जीवन के लक्ष्यों तथा मानव के सम्बन्धों को यथोचित रूप प्रदान किया जा सकता है तथा नियमित किया जा सकता है। अतः वर्तमान परिस्थिति में सामाजिक दृष्टिकोण अपनाते हुए शिक्षण संस्थाओं में कला को मानव के सम्बन्धों तथा जीवन लक्ष्यों को निश्चित आकार तथा नियमितता प्रदान करने के लिए साधन बनाया जाए। कला इस रूप में साधन तभी बनायी जा सकती है, जब कला-शिक्षण के उद्देश्य एवं तत्व निर्धारित किए जाएं। कला-शिक्षण के मुख्य उद्देश्य निम्नांकित होने चाहिए-

1. बौद्धिक विकास- बौद्धिक शक्ति का विकास करने के लिए अनुभव प्राप्त करना आवश्यक होता है। कला के माध्यम से यदि अनुभव प्राप्त किए जाएँ तो बौद्धिक विकास सरलता से हो जाता है, लेकिन अनुभव स्वयं करके सीखने की आदत से प्राप्त होते हैं। अतः कला-शिक्षण द्वारा स्वयं करके सीखने की आदत उत्पन्न करनी चाहिए, जिससे छात्र के अनुभव बढ़ें और छात्र का बौद्धिक विकास हो। कला “स्वयं करके सीखने” के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करती है।

2. मानसिक शक्तियों का विकास- कला-शिक्षण द्वारा मानसिक शक्तियों के विकास, कल्पना-शक्ति, स्मृति, निरीक्षण शक्ति, स्वतन्त्र चिन्तन-शक्ति, तुलनात्मक शक्ति, आत्म-प्रकाशन-शक्ति तथा आत्मनिर्णय-शक्ति जैसी महत्वपूर्ण शक्तियों को विकसित करना चाहिए। ललित कला का आधार ललित कल्पनाएँ होती हैं, उन्हें उपयोगी कला का रूप देकर उपादेय कल्पना के रूप में विकसित कर सकते हैं।

3. चरित्र-निर्माण और उसका विकास- एक विद्वान् के अनुसार, “The purpose of Art is to pure our emotion” अर्थात् कला का उद्देश्य हमारी भावनाओं को शुद्ध करना है। कला के माध्यम से स्वतन्त्र भाव प्रकाशन का अवसर मिलता है, जिससे कलाकार को अपनी कमियों का ज्ञान हो जाता है। अपनी चरित्रगत कमियों का ज्ञान होने पर कलाकार उन कमियों को सुधारने की कोशिश करता है। जब कलाकार लगातार इस बात का ध्यान रखता हुआ, अपनी कला का प्रयास जारी रखता है तो धीरे-धीरे उसका चरित्र एक दर्पण के समान हो जाता है। यही कला का प्रमुख उद्देश्य है। कला चरित्र के निर्माण में अपूर्व सहयोग प्रदान करती है।

4. व्यक्तित्व का निर्माण- आधुनिक मनोवैज्ञानिक मानव की जन्मजात प्रवृत्तियों को ही कलात्मक सृजन का आधार मानते हैं। पुरानी कहावत भी है कि “पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं। “

ये जन्मजात प्रवृत्तियाँ अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करके व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक बनायी जा सकती हैं। सभी कलाकृतियाँ खेल की प्रवृत्ति को सन्तुष्टि प्रदान करती हैं। इस प्रकार की सन्तुष्टि व्यक्तित्व के निर्माण में सहयोग देती है। अतः कला के शिक्षण के समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि कला का उद्देश्य व्यक्तित्व का निर्माण भी है। इसलिए छात्र को चाहिए कि वह कला के शिक्षण के साथ-साथ चरित्र के निर्माण पर भी विशेष ध्यान दे। एक विद्वान् ने सही ही कहा है, “जिसके पास केवल पैसा है तो सही अर्थों में उसके पास कुछ भी नहीं है, जिसके पास केवल स्वास्थ्य है तो समझो कि उसके पास कुछ है तथा जिसके पास केवल चरित्र है तो समझो कि उसके पास सब कुछ है।” चरित्र से ही व्यक्तित्व का निर्माण होता है। अतः कला के पाठ्यक्रम का संयोजन करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि छात्र में स्वतः ही कला-शिक्षण के साथ-साथ व्यक्तित्व के निर्माण की रुचि जामत हो। जब कला का उद्देश्य चरित्र का निर्माण होगा तो छात्र एक सच्चा कलाकार बन सकता है। अतः कला के शिक्षण का उद्देश्य चरित्र का निर्माण होना चाहिए।

5. शारीरिक विकास- आधुनिक शिक्षा प्रणाली मूलतः बुद्धिवादी है। इसी कारण आज का छात्र शारीरिक श्रम से बचना चाहता है। कला के माध्यम से शिक्षा में श्रम के मूल्य को आँकने की क्षमता छात्रों में विकसित की जा सकती है। इसके लिए श्रमयुक्त क्रियात्मक कार्यों को कला के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाए। इससे कला के साथ-साथ शारीरिक विकास का उद्देश्य भी पूर्ण हो जाए।

6. आत्मिक विकास- कला आत्म-परिष्कृति का एक उत्तम माध्यम है। कला का शिक्षण आत्म-शोधन एवं उच्च लक्ष्य की प्राप्ति में अपूर्व सहयोग प्रदान करना है, जो व्यक्ति आत्मा का बोध अपने अन्तःकरण में कर लेता है, वह व्यक्ति आत्मा से शुद्ध होता है। प्रसिद्ध विद्वान् नीत्से ने भी इस सम्बन्ध में कुछ इसी प्रकार के अपने विचार प्रकट किए हैं, “कला एक अभूतपूर्व शक्ति और आत्म-प्रेरणा है। उसकी कृतियों के माध्यम से आत्म-ज्ञान हो जाता है। अतः छात्र को अपनी पूर्णता तथा योग्यता का परिचय मिल जाता है। वास्तव में, आत्मानुभूति ही चरित्र के बल का आधार है। “

इस प्रकार कला का आत्मानुभूति की दिशा में प्रयोग किया जा सकता है। कला के माध्यम से कलाकार का आत्मिक विकास होता है। नृत्य कला, काव्य कला, मूर्ति कला, संगीत कला, आदि के माध्यम से कलाकार को अपने हृदय में झाँकने का अवसर मिलता है। ऐसे में कलाकार का दायित्व हो जाता है कि वह अपनी आत्मा का विकास समुचित रूप से करे। यही कला का उद्देश्य भी है। जब कोई कलाकार कला का शिक्षण लेता है तो इस बात पर भी अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिए कि कला के साथ-साथ उसका आत्मिक विकास भी हो।

7. सामाजिकता का विकास – प्रत्येक मनुष्य में कुछ प्रवृत्तियाँ सदैव विद्यमान रहती हैं। कुछ परिस्थितियों में यह प्रवृत्तियाँ उभर कर प्रकट होने लगती हैं तथा सामाजिक रूप धारण कर लेती हैं; जैसे काम की प्रवृत्ति, समूह बनाने की प्रवृत्ति, आत्म-प्रदर्शन की प्रवृत्ति तथा स्वामित्व की प्रवृत्ति, आदि ।

कला उपर्युक्त प्रवृत्तियों के शोधन की दिशा प्रदान करती है। चित्रकला छात्र-छात्राओं का सामूहिक रूप से नाटक, कवि सम्मेलन अथवा इसी प्रकार की किसी प्रतियोगिता का आयोजन और किसी कलाकृति का निर्माण, इत्यादि क्रियाओं द्वारा उपरोक्त प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने का अवसर मिल जाता है। इस प्रकार कई प्रकट होने वाली असामाजिक प्रवृत्तियाँ पूर्ण सामाजिक मान्यता का रूप धारण कर लेती हैं, क्योंकि कलाकार का मूल उद्देश्य कला की साधना है, अन्य प्रवृत्तियाँ कला के साधना के आगे धूमिल पड़ जाती हैं। इसलिए कला-शिक्षण का उद्देश्य सामाजिकता का विकास करना होना चाहिए।

उपर्युक्त प्रवृत्तियों के प्रकट होने पर अगर उनका अनुचित तरीके से दमन किया गया तो ये प्रवृत्तियाँ छिपे रूप में अचेतन मन पर प्रभाव डालती हैं तथा व्यक्ति को असामाजिक कार्यों को करने के लिए प्रेरित करती हैं। जब इन असामाजिक क्रियाओं को समाज मान्यता नहीं देता तो यही प्रवृत्तियाँ मानसिक ग्रन्थियाँ बन जाती हैं, जो मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देतीं। कला इन प्रवृत्तियों के शोधन को दिशा प्रदान करती है। इस प्रकार कला शिक्षण का उद्देश्य मनुष्य के अन्दर सामाजिकता का विकास करना होना चाहिए।

8. व्यवसाय का आधार- जब एक साहित्यकार अपने अन्तर्मन की प्रेरणा से अपनी भावनाओं को लेखनी के द्वारा कागज पर व्यक्त करता है तो यह उसकी साहित्य-रचना ‘कला’ का रूप धारण कर लेती है, किन्तु जब वही साहित्यकार अपनी रचना इस दृष्टि से करने लगे कि उसे उससे आर्थिक लाभ होने लगे, तब, यही साहित्य की रचना शिल्प कहलायेगी। कला शिल्प का आधार साहित्य की रचना है। यह साहित्य-रचना उपादेय कला का मार्ग प्रशस्त करती है। वर्तमान युग में मात्र ‘कला’ के नाम पर जीना दुष्कर है। अतः कला को जीवित रखने के लिए कला-शिक्षण के साथ यह उद्देश्य भी अवश्य निहित होना चाहिए कि कला व्यक्ति का व्यवसाय भी नियत करती है।

लेखन कला, नृत्य कला, नाटक लेखन, चित्रकारी करना, काव्य-रचना तथा संगीत, आदि सभी क्रियाएँ कला है, किन्तु जब लेखन, नृत्य, नाटक आदि व्यवसाय का आधार बन जाता है तो उपरोक्त कला, कला के स्थान पर शिल्प बन जाती है। इस प्रकार कला व्यवसाय का आधार बन जाती है। कला शिल्पी तैयार करती है, जो समय की पुकार है। अतः कला के शिक्षण के समय उसके उद्देश्यों में यह भी सम्मिलित होना चाहिए कि कला का शिक्षण इस प्रकार का हो, जिससे कला के शिल्पी तैयार हों, जिससे कला को व्यावसायिकता का आधार बनाया जा सके।

9. नैतिकता का विकास– कलाकृतियों से किसी युग की सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान होता है। आज भी भारतीय संस्कृति की कलाकृतियाँ विभिन्न रूपों में हमें प्राप्त हमें प्राप्त होती हैं। इन कलाकृतियों के अध्ययन से हमें अपने देश के सांस्कृतिक विकास की अनेक झाँकी मिलती हैं। कला सांस्कृतिक विकास तथा प्रसार में सहयोग प्रदान करती है। कला के माध्यम द्वारा एक स्थान की संस्कृति दूसरे स्थान पर पहुँच जाती है। कला नैतिकता प्रदान करने में सामाजिक मान्यताओं का सहारा लेती है। हमारी संस्कृति तथा कला के उद्देश्य नैतिकता की दिशा में मार्ग दर्शन करते हैं। अत: कला-शिक्षण का उद्देश्य नैतिकता का विकास करना है। कला शिक्षण में नैतिकता का समन्वय किया जाय तो नैतिकता का विकास होने से कला में निखार आयेगा और कला के शिक्षण का उद्देश्य भी पूर्ण हो जायेगा।

10. दार्शनिकता का विकास- वास्तव में, कला एक जीने का ढंग है। एक प्रसिद्ध लेखक ने ‘जीने की कला’ पर निबन्ध लिखा है, आपने पढ़ा भी होगा। जीवन को किस प्रकार कुशलतापूर्वक व्यतीत किया जाय ? यही कला का कार्य है। कला नेत्रों कानों तथा मस्तिष्क को इस प्रकार प्रभावित करती है, जिससे ये इन्द्रियाँ इतनी दक्ष हो जाती हैं कि प्रत्येक कला में सौन्दर्य-भाव की अनुभूति शीघ्रता से हो जाती है।

जीवन का अन्तिम ध्येय मोक्ष की प्राप्ति है। कलाकार भी आत्म-सन्तोष के लिए कला की साधना करता है। कला के शिक्षण में जीवन की दार्शनिकता का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति को अन्तर्निहित रखा जाये तो कला के शिक्षण का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है, क्योंकि कला मानव को कुशल बनाकर जीवन का लक्ष्य निर्धारित करती है। इसीलिए कलाकार भी कला के माध्यम से आत्म-सन्तोष के सहारे जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लेता है। एक कलाकार के लिए कला की सच्ची साधना ही मोक्ष की प्राप्ति का साधन है। कला-शिक्षण में इस दार्शनिकता के उद्देश्य को शामिल करना ही कला का उद्देश्य है।

कला के शिक्षण में उपरोक्त उद्देश्यों को ध्यान में रखा जाय तो सच्चे अर्थों में कला की साधना की जागी तथा उद्देश्यों की पूर्ति में सफलता मिल सकेगी। कला-शिक्षण के उद्देश्य भी पूर्ण हो सकते हैं और एक सच्चा कलाकार भी बना जा सकता है। इस प्रकार कहने के लिए सभी अपने को कलाकार कहते हैं लेकिन सच्चा कलाकार तो वही है जो कला-शिक्षण के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अपनी साधना में लीन रहे। निष्कर्ष रूप में तो यही कहा जा सकता है कि कला और कलाकार दो न होकर एक हो जायें। कलाकार अपनी कला में खो जाये यही कला का मुख्य उद्देश्य है। ऐसा हो तभी कला के शिक्षण का उद्देश्य पूर्ण हो सकता है।

कला के मनोवैज्ञानिक उद्देश्य

डीवी ने मनोवैज्ञानिक पक्ष उपस्थित करते हुए छात्रों की चार रुचियों को अधिक महत्वपूर्ण बताया है-

  1. वस्तुओं के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने की जिज्ञासा,
  2. कलात्मक प्रदर्शन की रुचि,
  3. वार्तालाप तथा विचारों के आदान-प्रदान की विधि,
  4. वस्तुओं के निर्माण करने की रुचि

उपर्युक्त रुचियों को आधार मानकर कला के मनोवैज्ञानिक उद्देश्य निम्नलिखित प्रकार से हैं—

1. निरीक्षण शक्ति का विकास- कला में जो कुछ छात्र देखता है, उसे अपने आस-पास भी नजर फैलाकर देखता है। उसकी आकृति, रंग-रूप तथा शक्ल को गहन दृष्टि से देखकर छात्र इन्हें बनाने की कोशिश करता है, लेकिन जैसा वह देखता है, वैसा बना नहीं पाता, अतः छात्र पुनः निरीक्षण करता है। इस प्रकार बार-बार निरीक्षण करने से निरीक्षणात्मक शक्ति का विकास होता है तथा वस्तु की बनावट में वास्तविकता आती है। छात्रों में निरीक्षणात्मक शक्ति बढ़ाने के लिए उन्हें भ्रमण के द्वारा प्राकृतिक दृश्य तथा घटनाओं को देखने का अवसर प्रदान किया जाय। इनके द्वारा छात्रों का बौद्धिक, मानसिक, आत्मिक तथा शारीरिक विकास भी होता है।

2. सौन्दर्य बोधी भाव जाग्रत करना- सौन्दर्य एक मानसिक अवधारणा है, क्योंकि बुद्धि वस्तुओं के रूप को विश्लेषण के द्वारा सुन्दर या कुरूप मानती है। तर्क के द्वारा विविध अनुभूतियों को स्पष्ट किया जाता है। बुद्धि और भावना में वही सम्बन्ध है, जो सत्य और सौन्दर्य में पाया जाता है। कला और सौन्दर्य में परस्पर सम्बन्ध है। अतः प्रत्येक वृद्ध, युवा तथा बालक कला के द्वारा रूप और कुरूप में अन्तर भी समझता है। इसलिए कला का सौन्दर्य बोधी भाव जाग्रत करना मनोवैज्ञानिक उद्देश्य है।

3. मोक्ष प्राप्ति का साधन बनाना- एक कलाकार को कला में सौन्दर्य के भाव की अनुभूति शीघ्रता से होने लगती है तथा इस सौन्दर्य-भाव को प्रदर्शित करने की साधना में कलाकार सदैव लगा रहता है। उसे दुनिया के द्वन्द-फन्द से कोई मतलब नहीं रहता। वह अपने आत्म-सन्तोष की साधना में जुटा रहता है। जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। इस दार्शनिक भाव से कला के द्वारा कलाकार जीवन का लक्ष्य प्राप्त करता है। इसलिए एक कलाकार अपनी सच्ची साधना से मोक्ष की प्राप्ति का साधन बना लेता है।

4. संवेदनाओं का विकास- वार्ड के शब्दों में, “शुद्ध संवेदना मनोवैज्ञानिक कल्पना है।” संवेदना 7 प्रकार की होती हैं—दृष्टि संवेदना, ध्वनि संवेदना, घ्राण संवेदना, स्वाद संवेदना, स्पर्श संवेदना, माँसपेशी संवेदना और शारीरिक संवेदना । संवेदनाओं की यह विशेषता होती है कि वे गुण, तीव्रता, अवधि, स्पष्टता, स्थानीय चिन्ह एवं विस्तार को लेकर बलती हैं। कला तथा संवेदना में सह-सम्बन्ध है। कला में हम वही प्रदर्शित करेंगे, जैसी हम संवेदना करेंगे। चाहे वह नृत्यकला, संगीतकला और चित्रकला आदि ही क्यों न हों ? अतः संवेदनाओं का विकास करना कला का मनोवैज्ञानिक उद्देश्य है।

5. काल्पनिक सन्तुष्टि- वुडवर्थ के शब्दों में, ‘कल्पना’ बालक की रुचियों, प्रवृत्तियों, इच्छाओं और योग्यताओं को प्रकट करती है। कुशल शिक्षक इनका ज्ञान प्राप्त करके और छात्र की कल्पना को उचित दिशा प्रदान करके उसके संसार को सुखमय बना सकता है। मनोविश्लेषणवादी मनोवैज्ञानिकों का मत है कि अतृप्त कामुक इच्छाओं की सन्तुष्टि व्यक्ति कल्पना के द्वारा सरलता से कर सकता है। कहानी पढ़ने वाला, सिनेमा देखने वाला, नाटक, उपन्यास एवं कविता पढ़ने वाला व्यक्ति अक्सर दृश्यात्मक या पाठ्य सामग्री से कल्पना करता है और समानता के द्वारा सामग्री से सन्तुष्टि का अनुभव करता है।

6. व्यक्तित्व का निर्माण करना- आधुनिक मनोवैज्ञानिक मानव की जन्मजात प्रवृत्तियों को ही कलात्मक सृजन का आधार मानते हैं। जन्मजात प्रवृत्तियाँ अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर व्यक्तित्व निर्माण में सहायक हो सकती हैं। समस्त कलाकृतियाँ खेल की प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करती हैं। इस प्रकार की सन्तुष्टि व्यक्तित्व के निर्माण में सहयोग देती हैं, अतः कला का मनोवैज्ञानिक उद्देश्य व्यक्तित्व का निर्माण भी है।

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